गुरुवार, 27 अगस्त 2015

कुत्ते और सियार (कहानी)

बच्चो, आज आपको एक मज़ेदार लोककथा सुनाऊँगी. लोककथा उसको कहते हैं जो नानी-दादी, मम्मी-पापा आदि हम बच्चों को सुनाते हैं, लेकिन वह कहीं लिखी नहीं होती. ये कहानी मुझे मेरे बाऊ यानि पापा ने सुनायी थी. हो सकता है कि आपने ये किस्सा किसी और रूप में पहले भी सुना हो. कुत्ते और सियार एक ही श्रेणी के जानवर होते हैं. ये लोककथा इस कल्पना पर आधारित है कि सियार और कुत्ते अलग-अलग कैसे रहने लगे- कुत्ते शहर में और सियार जंगल में.

बहुत पहले कुत्ते और सियार एक साथ जंगल में रहा करते थे. साथ-साथ रहने के कारण अक्सर खाने की कमी हो जाया करती थी. वो लोग जब भी इंसानों को देखते उनके मन में जिज्ञासा पैदा होती कि ये कैसे रहते हैं? क्या खाते हैं? उन्हें लगता कि शहर में खूब ढेर सारी खाने की चीज़ें होती हैं और अगर हम बारी-बारी से जाकर उन्हें चुरा लाएं, तो हमारी खाने की समस्या दूर हो सकती है. पर शहर जाने का जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता था. उनको आदमियों से डर लगता था.
कुत्ते थोड़े ज़्यादा तगड़े थे. इसलिए एक दिन तय हुआ कि कुत्ता लोग शहर जाकर खाने की चीज़ें लायेंगे. अगर इसके लिए आदमियों को काटना भी पड़े तो कोई बात नहीं. तो अपनी पूरी हिम्मत जुटाकर कुत्ते शहर की ओर निकल पड़े. लेकिन शहर जाकर कुत्तों को आदमियों से प्यार हो गया. इंसानों ने कुत्तों को अपने यहाँ प्यार से रख लिया. जिन्हें घर में जगह नहीं भी मिली, वो भी गलियों में रहकर कुछ न कुछ खाने को पा जाते थे. 
इंसानों से इतना प्यार और खाने की चीज़ें पाकर कुत्तों ने उनके यहाँ चोरी करके वापस जंगल जाने का विचार त्याग दिया. उन्हें लगा कि अब इंसानों के यहाँ चोरी करना, उन्हें धोखा देना हुआ. लेकिन दूसरी ओर उन्हें सियारों से किया अपना वादा भी याद था. कुत्ते बड़े असमजंस में पड़ गए कि आखिर वो करें तो क्या करें? आखिर में कुत्तों ने तय किया कि जब भी सियार अपने काम के लिए पूछेंगे तो कुत्ते उनको डाँटकर चुप करा देंगे. 
तब से जब भी सियार जंगल की ओर से अपने काम के बारे में पूछते हैं "हुआऽऽऽऽ?? हुआऽऽऽऽ??" तब इधर शहर से कुत्ते उन्हें डाँटकर कहते हैं "भक् भक्"...:) 

है न, मज़ेदार किस्सा ?

1 टिप्पणी:

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