रविवार, 26 अप्रैल 2015

चार आने की धूप (कहानी)

(बच्चो, आज आपके लिए एक कहानी पोस्ट कर रही हूँ, जिसे हमारे एक साथी नैय्यर इमाम सिद्दीकी ने लिखा है. इसमें कुछ शब्द आपको कठिन लगेंगे, तो उनके अर्थ कहानी के अंत में दे दिए गए हैं. इससे आप कुछ नए शब्द भी सीखेंगे और कहानी का मज़ा भी लेंगे. आपको ये कहानी निश्चित ही बहुत अच्छी लगेगी.) 


“बिल्ली को किस भाषा में ‘गातो’ कहते हैं”?

नींद से बोझल आँखों को मसलते हुए उसने अँधेरे में उस आवाज़ को टटोलने की कोशिश की जिसने उसे ठिठुरती सर्दी की गर्म रात में ख़ूबसूरत नींद से जगाया था.

बोलो ! “बिल्ली को किस भाषा में ‘गातो’ कहते हैं”?

नानू ! आपको भी आधी रात का ही वक़्त सूझता है सबक़ पूछने के लिए? आवाज़ पहचानते ही उसने गर्म लिहाफ़ के अन्दर से कसमसाते हुए कहा. मैं तो सबक़ सुनाने के लिए देर रात तक आपकी स्टडी में आपका इंतज़ार करता रहा पर आप आए ही नहीं तो मैं सोने चला आया.

मैं आधी रात में सवाल इसलिए पूछता हूँ कि इस वक़्त ज़हन बिलकुल साफ़ और शांत होता है. इस वक़्त ज़हन पर जो कुछ भी उकेरा जाता है वो पत्थर की लकीर की तरह अमिट हो जाता है, समझे !  अच्छा, ये बताओ फ़ारसी का सबक़ याद हुआ या नहीं?

उसने करवट बदलते हुए कहा, हाँ ! याद हो गया है नानू.

तो फिर ये बताओ कि ‘कुलाहे मन स्याह अस्त’ का उर्दू तर्जमा क्या होगा?

नानू ! इस बार उसने लिहाफ़ से ज़रा सा मुँह बाहर निकाल कर कहा, – ‘सब याद है पर अभी सब कुछ गुडमुड सा है. सुबह नाश्ते के वक़्त आपको सब कुछ सुना दूँगा.

अच्छा, तो अब तुम आराम से सो जाओ, सुबह नाश्ते के वक़्त मिलते हैं. नानू ने उसके गाल थपथपाते हुए उसके माथे पर बोसा दिया और लिहाफ़ ठीक से ओढ़ने की ताकीद करते हुए कमरे से बाहर निकल गए.

***
सुबह 8:30 बजे नाश्ते की टेबल पर सभी घरवाले इकट्ठे थे. छोटे मियाँ को हलवे के साथ बेमुरव्वती से इंसाफ़ करते देख अब्बा ने कहा कि, - ‘इतनी जल्दी क्या है, आराम से खाओ. हलवा कहीं भागा तो नहीं जा रहा.’ छोटे मियाँ भला कब चुप रहने वाले थे, तपाक से बोले, - ‘हलवा तो बेशक यहीं होगा, लेकिन आप ऑफ़िस चले जायेंगे. कई रोज़ से आप मेरी चीज़ें लानी भूल जा रहे हैं. आज तो मैं आपके साथ ही चलूँगा. आप दुकान से मुझे मेरी चीज़ें दिलवा देना, फिर मैं घर वापस आ जाउँगा.’ 

अब्बा ने घड़ी देखते हुए कहा, - ‘छोटे मियाँ ! आज तो माज़रत, आज कुछ ज़रूरी काम है, फिर कभी हम आपको साथ लिए चलेंगे. या आप यूँ करें कि आपने जो चीज़ें बाज़ार मँगवानी है उनकी लिस्ट बना लीजिए, मैं कल दफ़्तर से वापसी के वक़्त लेता आऊँगा.’

हाँ ! ये ठीक रहेगा. क्यूँ छोटे मियाँ? नानू ने गाजर के हलवे की तश्तरी अपनी तरफ़ खींचते हुए कहा.

छोटे मियाँ ने कुछ भी बोलने से गुरेज़ किया और बस अपनी कंचे जैसी हरी आँखें मटका दीं. 

नानू ने मक्खन लगा फ़्रेंच टोस्ट और ऑमलेट छोटे मियाँ की तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘कुलाहे मन स्याह अस्त” का उर्दू तर्जमा क्या होगा?

छोटे मियाँ ने टोस्ट कुरकुराते हुए ऑमलेट का एक टुकड़ा तोड़ कर मुँह में रखा और इत्मिनान से कहा, -‘मेरी टोपी काली है’

शाबाश ! नानू ने ख़ुश होते हुए कहा. ऐसे ही मन लगा कर सबक़ याद करना चाहिए. अच्छे बच्चे कभी अपना सबक़ नहीं भूलते. और सबक़ हमेशा याद रहे इसके लिए बच्चों को चाहिए कि हर सुबह एक ग्लास दूध ज़रूर पिएँ. आप दूध पियेंगे न छोटे मियाँ?

हाँ ! आज छोटे मियाँ ने बिना किसी हुज्जत के ही हथियार डाल दिए थे.

नानू ने दूध का ग्लास छोटे मियाँ की तरफ़ बढ़ाते हुए पूछा, -“बिल्ली को किस भाषा में ‘गातो’ कहते हैं”?

छोटे मियाँ ने दूध का घूँट भरते हुए कहा, - ‘इटालियन में’.

बिलकुल सही जवाब ! और बिल्ली की वैसी ही मूंछें होती है जैसी अभी छोटे मियाँ की बनी हुई हैं. सबकी नज़रें एक साथ छोटे मियाँ की तरफ़ उठीं और कमरा ठहाकों से गूंज उठा. सबको ख़ुद पे हँसते देख छोटे मियाँ शरमाते हुए उठे और हथेली की पीठ से अपने होंठ साफ़ करते कमरे से भाग खड़े हुए.

***
छोटे मियाँ नानू के स्टडी में कबसे गुमसुम बैठे हुए थे. कहाँ तो वो अपने अब्बा हज़ूर को अपने लिए रोज़ दर्जनों चीज़ों के नाम गिनवा देते थे पर जब लिस्ट बनाने की बात आई तो बहुत सोचने के बाद भी कुल जमा आठ नाम. एक क्रिकेट बैट, एक जस्ता काग़ज़ लाइन वाली, एक सफ़ेद, एक स्केल, रंगीन पेंसिल, रंगीन रिबन, रंगीन काग़ज़ और गोंद. पेंसिल का पिछला हिस्सा चबाते हुए छोटे मियाँ यही सोचे जा रहे थे कि क्या हम बच्चों के लिए बाज़ार में ज़्यादा चीज़ें नहीं बिकतीं? अब्बा और अम्मी तो थैले भर-भर के चीज़ें ले आते हैं और मेरे लिए बस आठ ही चीज़ें. क्या बाज़ार की सारी चीज़ें सिर्फ़ बड़ों के लिए ही होती हैं? हमारा भी तो कितना मन करता है ढेर सारे खिलोने ख़रीदें, अच्छी-अच्छी गाड़ियाँ ख़रीदें. मज़े-मज़े की चीज़ें खायें पर हमें तो हर बात पर अम्मी-अब्बा टोक दिया करते हैं कि फलाँ चीज़ सेहत के लिए अच्छी नहीं तो फलाँ चीज़ मेरे लिए, गोया उन्हें मेरी कितनी फ़िक्र है. अगर उन्हें मेरी इतनी ही फ़िक्र है तो मेरे लिए बाज़ार से ढेर सारी चीज़ें क्यूँ नहीं ले आते?


शायद पेंसिल के पिछले हिस्से में कोई विटामिन होती होगी तभी तो हर कोई सोचते वक़्त पेंसिल का पिछला हिस्सा चबाता है और उसले अपने मसले का कोई न कोई हल मिल ही जाता है. पेंसिल चबाते-चबाते छोटे मियाँ को भी आईडिया आ ही गया. वो दौड़े-दौड़े नानू के पास गए और कहा, - ‘नानू क्या आप मुझे एक अठन्नी दे सकते हैं, अम्मी तो पैसे देंगी नहीं.’

नानू ने किताब को उल्टा कर के अपने सीने पे रखते हुए आँखों से चश्मा हटाया और बोले, - ‘हाँ ! मैं आपको एक क्या दस अठन्नी दे सकता हूँ, पर आप अठन्नी का करेंगे क्या?’

‘नानू मैं पास वाले नुक्कड़ पे जाउँगा और वहाँ जो दुकानें हैं न, मैं वहाँ से अपनी पसंद की ढेर सारी चीज़ें ख़रीदूँगा’

‘अच्छा ! नानू ने मुस्कुराते हुए कहा’, और तकिये के नीचे से एक अठन्नी निकाल कर छोटे मियाँ को जल्दी आने की ताकीद करते हुए पकड़ा दिया. पैसे मिलते ही छोटे मियाँ ख़ुश हो उठे और इठलाते हुए  नुक्कड़ की तरफ़ चले जो उनके घर से महज़ 10-20 क़दम की दूरी पर ही था, मगर छोटे मियाँ के क़दम से हिसाब से नुक्कड़ शायद 40-50 क़दम दूर हो.

दूकान पर पहुँचते ही छोटे मियाँ ने कहा, - ‘अंकल ! मुझे एक पतंग दे दीजिये.’

‘लेकिन...बेटा, आप इतने छोटे हो कि आप पतंग नहीं उड़ा पाओगे, आप कोई टॉफ़ी क्यूँ नहीं ले लेते? नहीं मुझे टॉफ़ी नहीं पतंग चाहिए.’

‘पर...आप से पतंग उड़ नहीं पायेगी बेटा, आप पतंग उड़ाने के लिए अभी बहुत छोटे हो.’ ये सुनते ही छोटे मियाँ मायूस हो गए और अठन्नी हथेली में दबाए घर की तरफ़ मुड़ गए. अभी 10-12 क़दम ही चले होंगे की रस्ते में एक बच्चा मिला जो बुरी तरह काँप और सिसक रहा था. छोटे मियाँ ने उस से पूछा कि दोस्त तुम रो क्यूँ रहे हो, और इतना काँप क्यूँ रहे हो?

‘मुझे चार दिन से बहुत तेज़ बुखार है, घर में इतने पैसे नहीं कि मेरी दवा आ सके, इसीलिए मैं यहाँ धूप में बैठा हूँ’ – बच्चे ने कहा.

‘धूप में बैठने से क्या तुम्हारी तबियत ठीक हो जाएगी?’ – छोटे मियाँ ने हैरत से पूछा.

‘नहीं ! तबियत तो ठीक नहीं होगी, पर मुझे कँपकँपी से थोड़ी राहत मिल जायेगी.

‘अच्छा, क्या तुम नुक्कड़ तक मेरे साथ चल सकते हो? मेरे पास एक अठन्नी है, मैं उससे तुम्हारे लिए दवाई ख़रीद दूँगा.’

बीमार बच्चे ने कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप छोटे मियाँ के पीछे चलने लगा. नुक्कड़ पर पहुँच कर छोटे मियाँ ने अपनी अठन्नी दुकानदार को देते हुए कहा कि इसे बुखार है, आप इसे दवा दे दीजिये. दुकानदार अठन्नी देखते ही कहा कि इतने पैसे में दवा तो नहीं मिल सकती. कम से कम दो रुपये हों तो मैं तुम्हें दवा दे दूँ.

छोटे मियाँ ने कुछ सोचते हुए कहा, - ‘मेरे पास तो महज़ एक अठन्नी ही है, ये बेचारा बीमार है और काँप रहा है इसलिए धूप में बैठा रो रहा था. कहता है कि धूप से कुछ राहत मिल जाएगी इसे. एक काम कीजिये, आप मुझे चार आने की एक मिठाई और इसे चार आने की धूप दे दीजिये.’

छोटे मियाँ के इस मुतालबे पर बीमार बच्चा और दुकानदार दोनों उनका मुँह देखने लगे जबकि छोटे मियाँ तो अपने लिए मिठाइयाँ पसंद करने में मसरूफ़ थे.
~
नैय्यर / 17-04-2015 
~
ज़हन = दिमाग़, 
तर्जमा = अनुवाद
बोसा = प्यार भरा चुम्बन, 
ताकीद = ज़ोर देना
बेमुरव्वती = लापरवाही, संवेदना विहीन
इंसाफ़ = न्याय, 
माज़रत = क्षमा
दफ़्तर = ऑफिस, कार्यालय, 
तश्तरी = बड़ी प्लेट
गुरेज़ = बचना, 
हुज्जत = बहाना बनना
मायूस = निराश होना
महज़ = सिर्फ़, 
मसरूफ़ = व्यस्त


  

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

गट्टू

बच्चों, आज मैं आपको एक और फिल्म के बारे में बताने जा रही हूँ, जो आपको बहुत अच्छी लगेगी. फिल्म का नाम है "गट्टू" और इसे Children Film Society of India ने बनाया है. निर्देशक हैं- राजन खोसा. 20 जुलाई 2012 को रिलीज़ हुयी इस फिल्म को फिल्म समीक्षकों ने बहुत सराहा.

फिल्म का हीरो गट्टू एक बेहद गरीब लड़का है और अपने एक रिश्तेदार के यहाँ काम करता है. उसके पास स्कूल की फीस लायक पैसे नहीं हैं इसलिए स्कूल नहीं जाता. गट्टू को पतंग उड़ाना बहुत पसंद है और वो बहुत सी पतंगों को काट चुका है. लेकिन कस्बे में एक ऐसी पतंग है जिससे पेंच लड़ाकर कोई जीत नहीं पाया. उस पतंग को कस्बे के बच्चे 'काली' कहते हैं. गट्टू का सपना है कि वह एक न एक दिन इस पतंग को ज़रूर काटेगा. वह सोचता है कि अगर कस्बे के स्कूल की छत से पतंग उडाये तो काली को जीत सकता है.

एक दिन मौका पाकर गट्टू एक बच्चे की यूनिफॉर्म पहनकर स्कूल में घुस जाता है. वह स्कूल पहुँच तो जाता है लेकिन उसे पढ़ना-लिखना तो आता ही नहीं. अब आप सोचिये कि गट्टू कैसे सबके सवालों का जवाब दे पायेगा? क्या गट्टू छत तक पहुँचकर काली को काट पायेगा या पकड़ा जाएगा और सज़ा पायेगा? ये सब आपको फिल्म देखकर ही पता चल पायेगा. मैं बता दूँगी तो सस्पेंस खत्म हो जाएगा न ?

तो आप अपने मम्मी-पापा से कहकर ये फिल्म मंगवाएँ और ज़रूर देखें. आपके मम्मी-पापा और बड़े भाई-बहनों को भी फिल्म खूब मज़ेदार लगेगी. यहाँ मैं 'गट्टू' के ऑफिसियल ट्रेलर का वीडियो लगा रही हूँ. यू ट्यूब पर ये मूवी कुछ किस्तों में देखने को मिल सकती है.


शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

"गुल्लू"- (बालगीत)

बच्चों, आज 'कलीम अव्वल' जी का लिखा बालगीत प्रस्तुत है. इस गीत से परिचय हमारे मित्र श्री प्रकाश गोविन्द जी ने कराया. आशा है कि आपको पसंद आएगा.

गुल्लू बाबू 'एयर गन' ले /करने चले शिकार
साथ गाँव भर के थे बच्चे /करते हाहाकार
***
गुल्लू बाबू लगे सुनाने /कैसे मारा शेर
कैसे मारा चीता हमने/हाथी से मुठभेड़
***
"इक दिन मिला भयंकर भालू /छेंक लिया पथ सारा
ऐसा मारा झापड़ उसको /उलट गया बेचारा
***
और बताएं गैंडा इक दिन /मेरे पीछे दौड़ा
एक उठाया ढेला हमने /माथा उसका फोड़ा
***
अरना भैंसा मिला एक दिन /लगा फुलाने नथुने
ऐसी डांट पिलाई उसको /थर-थर लगा कांपने
***
अजगर की फिर पूंछ पकड़ कर /घर तक उसे घसीटा
बाघों को तो बांध-बांध कर /जब जी चाहा पीटा "
***
तभी पांव पर इक चूहे ने /लम्बी कूद लगाई
तब से हैं बेहोश अभी तक/अपने गुल्लू भाई

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

एगो रहलन राजा

बचपन के कई क़िस्से बड़े होने पर समझ में आते हैं। तो एक गीत जैसा क़िस्सा यहाँ पर अपनी पहली पोस्ट के रूप में -
(भोजपुरी) में है -

एगो रहलन राज
बोवलन खाजा।
तब जामल।
गइनी सन काटे।

मीर कटलन मीर बोझा
दादा कटलन तीन बोझा
आ हम दू तीन गो बतिया।

गइनी स बेचे ।

मीर बेचलन मीर बोझा
दादा बेचलन तीन बोझा
आ हम देखते रह गइनी

मीर के मिलल मीर पईसा
दादा के मिलल तीन पईसा
आ हमरा एगो अधेला

गइनी स खाए।

मीर खइलन मीर रोटी
दादा खइलन तीन रोटी
आ हम एगो टुकड़ा।


फेर गइनी स खेत में
तब ले खेतवाह आ गइल

मीर के मरलस मीर लाठी
दादा के मरलस तीन लाठी
आ हमरा के उठा के पटक देलस।

मीर लगलन रोए
दादा लगलन टोए
आ हम दाँत चियार देनी।


( जो लोग भोजपुरी नहीं समझ सकते वो लोग You Tube पर जा के ek rahen meer ek rahen beer टाइप करें। अमिताभ का एक अल्बम आया था अवधी भाषा में)

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

शर्त (कहानी)

बच्चों, आज मैं तुम्हें अपने बचपन की एक घटना को कहानी के रूप में बताना चाहूँगी. इस घटना से मुझे एक बड़ी सीख मिली थी। बिना किसी के कहे अपनी गलती मान लेने की और उसे फिर न दोहराने की सीख। कहानी शब्दशः वैसी ही नहीं है, जैसी घटना मेरे साथ घटी थी। लेकिन उसका सेंट्रल आइडिया वही है, जो मैंने उस समय महसूस किया था।

बात तब की है जब मैं कक्षा छः में पढ़ती थी। मेरे पिताजी मगरवारा नाम के एक छोटे से स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे और हमलोग वहाँ की रेलवे कॉलोनी में रहते थे। कॉलोनी के अंदर और उसके आस-पास खेलने की बहुत सारी जगह थी- हरे मैदान, कच्ची और पक्की खाली-खाली सड़कें, खेत, बाग, झाडियाँ, ईंट के भट्ठे, फैक्ट्रीज के खाली पड़े फॉर्म। हम बच्चे ट्रेन से स्कूल जाते थे। वापस आकर हम बहुत थक जाते लेकिन फिर भी खूब खेलते और ऊधम मचाते थे।

मैं कॉलोनी के छोटे बच्चों की लीडर थी। सारे बच्चे मेरी बात मानते थे क्योंकि मैं उनको रोज़ कहानी सुनाती थी। शाम को जब तक उजाला होता, हम खेलते और अँधेरा हो जाने पर सब बच्चे मुझे घेरकर कहानी सुनते। बच्चों को मेरी डरावनी कहानियाँ बहुत भाती थीं। लेकिन मैं बच्चों को डराने के लिए कहानी नहीं सुनाती। मैं उनसे कहती कि डरना कोई बुरी बात नहीं, लेकिन हम जिस चीज़ से डर रहे हैं, उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए। एक दिन मैं ऐसी ही एक कहानी सुनाते हुए बोली "डरते तो सभी हैं, लेकिन डरकर हार नहीं माननी चाहिए।" तभी मेरा एक दोस्त श्याम बोला "तुम झूठ कहती हो। मैं नहीं डरता।" मैंने कहा "किसी न किसी चीज़ से तो डरते होगे।" पर वो नहीं माना।

बहुत देर तक हममें इस बात पर बहस होती रही। वो अपनी ज़िद पर अड़ा रहा कि वो डरता नहीं। मैं अपनी बात पर कायम कि दुनिया में कोई ऐसा नहीं है जिसे किसी न किसी बात से डर न लगता हो। बच्चे हमारी इस बहस के मज़े ले रहे थे। फिर उनमें से एक बच्चा बोला "गुड्डू दीदी, क्यों न शर्त लग जाए? आप श्याम भईया को डरा दो किसी बात पर।" इस पर श्याम ने मुझे चैलेन्ज किया कि ये मुझे डरा नहीं सकती। मैंने भी ताव में आकर शर्त लगा दी कि मैं तुम्हें डराकर रहूँगी एक न एक दिन।

इस बात को कई हफ्ते हो गए। शायद सब धीरे-धीरे इस शर्त के बारे में भूल गए थे, लेकिन मैं नहीं भूली थी। मुझे लग रहा था कि श्याम ने सबके सामने मुझे चुनौती दी है, और अगर मैंने उसे नहीं हराया तो बच्चों के सामने मेरी साख मिट्टी में मिल जायेगी। मैं बस मौका ढूँढ़ रही थी कि कब श्याम को डरा सकूँ।

रेलवे कॉलोनी के पीछे एक कब्रिस्तान था जिसमें ईसाइयों की कब्रें और हिंदुओं की समाधियाँ थीं। उन समाधियों पर नाम वगैरह भी खुदे थे, जिनसे हमें कुछ खास मतलब नहीं था। चारों ओर पेड़-पौधे और घास का हरा-भरा मैदान था। हमें उधर खेलने को मना किया जाता था। लेकिन हमारे लिए वो "ऊँच-नीच" का खेल खेलने की आदर्श जगह थी। हम घरवालों से बिना बताए सर्दियों के संडे वहाँ ज़रूर पहुँच जाते।

उस दिन भी हमलोग वहाँ पहले 'आइस्पाईस" खेले और उसके बाद ऊँच-नीच खेलने लगे। इस खेल में एक "चोर" होता था, जो दौड़-दौड़कर सबको पकड़ता और बाकी बच्चे किसी ऊँची जगह चढ़कर खुद को बचाते। बीच-बीच में जगह की अदला-बदली होती। जो भी एक जगह ज़्यादा देर तक रहता या फिर जिसको जगह बदलते समय चोर छू लेता वो चोर हो जाता।

मैं चोर थी और सबको पकड़ रही थी। सब इधर-उधर भाग रहे थे। श्याम थोड़ी दूर झाडियों में एक समाधि पर चढ़ गया था। सफ़ेद रंग से पुती हुयी वह समाधि उस जगह सबसे बड़ी और ऊँची थी। समाधि के ऊपर की ओर चार खम्बों पर एक छत भी पड़ी हुयी थी। ऊँचे होने के कारण उस पर चढ़ने-उतरने में थोड़ा समय लगता था।  हम सारे बच्चे कॉलोनी की ओर जाने वाली सड़क की ओर थे और श्याम अंदर उस समाधि की ओर। मुझे यही सबसे आइडियल समय लगा उसे डराने का।

मैंने चिल्लाकर कहा "श्याम, तुम्हारे पीछे कोई है।"
श्याम बोला "हट, झूठ बोल रही हो।"
"सच्ची, उसकी बड़ी-बड़ी मूँछें हैं और हाथ में तलवार। तुम्हें नहीं दिख रहा?" मैंने एकदम परेशान सा चेहरा बनाकर कहा।
अब श्याम थोड़ा डर गया। बाकी बच्चे पहले तो मेरी बात से थोड़ा चौंके। फिर सबने हमेशा की तरह मेरी हाँ में हाँ मिलाना शुरू किया।
"अरे हाँ, गुड्डू सच कह रही है। वो तुम्हारी ही ओर आ रहा है। भाग वहाँ से!"
मैंने भी कहा, "भाग श्याम!"

और सड़क की ओर दौड़ने लगी। सारे बच्चे पहले ही सड़क की ओर दौड़ लगा चुके थे। हमने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। श्याम 'रुको-रुको' चिल्लाकर हमारे पीछे दौड़ा। लेकिन हम सब भागकर पहले ही कॉलोनी में ओर आ चुके थे। बच्चों ने मुझसे पूछा "अब क्या करें?" तो मैंने उन्हें अपने-अपने घर भेज दिया।

दूसरे दिन हम स्कूल से जब वापस आये तो पता चला कि श्याम की तबियत खराब है। श्याम की मम्मी ने मेरी अम्मा से शिकायत की थी। मुझसे पूछताछ हुयी तो मैंने पूरी बात बता दी। मुझे बहुत डाँट पड़ी। एक तो हम बिना बताये उस जगह खेलने गए, दूसरे सबने मिलकर श्याम को डराया। श्याम उस घटना से इतना ज़्यादा डर गया था कि उसे बुखार हो गया था। हम सारे साथी श्याम को देखने गए। श्याम रुआँसा होकर बोला "डरा तो लिया था तुमने। फिर भाग क्यों आये थे तुमलोग मुझे छोड़कर?" मैं बहुत दुखी हुयी उसकी यह बात सुनकर।

मुझे नहीं पता था कि बात इतनी बढ़ जायेगी। पता होता तो शायद ऐसा न करती। हमारी ज़रा सी शैतानी ने श्याम को इतनी तकलीफ दी। मैंने उस दिन मन ही मन निश्चय किया कि कभी ऐसी उल्टी-सीधी शर्त नहीं लगाऊँगी। कभी भी अपने किसी साथी को बीच रास्ते में छोड़कर नहीं भागूँगी। हँसना-बोलना, हँसी-मज़ाक, एक-दूसरे को चिढ़ाना और बुद्धू बनाना- ये सब बातें एक लिमिट में अच्छी लगती हैं। और कुछ भी हो, खेल हो या और कोई समय, अपने किसी साथी को एकदम अकेले नहीं छोड़ना चाहिए।

सोमवार, 13 अप्रैल 2015

चुन चुन करती आयी चिड़िया


बच्चों, आज आपके लिए एक प्यारा सा गीत. हमलोग इस गीत को बचपन में खूब गुनगुनाते थे.





चुन चुन करती आई चिड़िया
दाल का दाना लाई चिड़िया
मोर भी आया, कौवा भी आया
चूहा भी आया, बन्दर भी आया
चुन चुन करती..
भूख लगे तो चिड़िया रानी
मूँग की दाल पकाएगी
कौवा रोटी लाएगा
लाके उसे खिलाएगा
मोर भी आया…
चलते चलते मिलेगा भालू
हम बोलेंगे नाचो कालू
मुन्ना ढोल बजाएगा
भालू नाच दिखाएगा
मोर भी आया…

साथ हमारे चले बराती
मैं तो हूँ मुन्ने का हाथी
सीधे दिल्ली जाऊँगा
तेरी दुल्हनिया लाऊँगा
मोर भी आया…

Movie/Album: अब दिल्ली दूर नहीं (1957)
Music By: दत्ताराम
Lyrics By: शैलेन्द्र
Performed By: मो.रफ़ी

सतरंगी पैराशूट की कहानी

बच्चों, 2011 में एक फिल्म आयी थी "सतरंगी पैराशूट." इसे विनीत खेत्रपाल जी ने बनाया था। ये कुछ ऐसे बच्चों की कहानी है, जो एक पैराशूट से उड़ने के सपने लिए अपने गाँव से दिल्ली पहुँच जाते हैं। ये फिल्म बच्चों के साथ बड़ों को भी खूब पसंद आयी थी।

फिल्म की कहानी इस प्रकार है- नैनीताल से दूर एक छोटे से गांव में पप्पू और उसके चार हमउम्र दोस्तों की अपनी दुनिया है। पप्पू के पिता गांव में बर्फ के गोले बेचकर अपने परिवार को पाल रहे हैं। पप्पू के दोस्तों में गांव के थानेदार सूबेदार सिंह का बेटा भी शामिल है। इन पांचों की हर दिन गांव के पास कहीं न कहीं मुलाकातें होती हैं और सभी अपने उन अधूरे सपनों के बारे में बातें करते , जो पूरे नहीं हो रहे।

ऐसे में एक दिन जब इन सभी ने टीवी पर सतरंगी पैराशूट को हवा में उड़ते देखा तो इन सभी ने ठान ली कि एक दिन ऐसे पैराशूट में हवा में उड़ना है। अपने इस सपने को साकार करने के लिए सभी गांव से भागकर जब मुंबई में इसी तरह का पैराशूट खरीदने पहुंचे तो उन्हें एक ऐसी साजिश का पता चलता है , जो 26/11 की तर्ज पर एक खतरनाक आतंकवादी संगठन द्वारा रची जा रही है। इस साजिश का पता लगने के बाद पांचों दोस्त खुद को पुलिस स्टेशन में इंस्पेक्टर के सामने पाते हैं।

फिर वे बच्चे खुद कैसे बचते हैं और कैसे उस साजिश के बारे में पुलिस को बता पाते हैं, ये तो फिल्म देखकर ही पता चलेगा। तो आपलोग ये फिल्म ज़रूर देखिये। ये आपके मम्मी-पापा को भी अच्छी लगेगी। फिल्म यू ट्यूब पर तो नहीं है। उस पर सिर्फ एक ट्रेलर है। आप इसकी सी.डी. या डीवीडी खरीद सकते हैं।


गुरुवार, 9 अप्रैल 2015

एक चिड़िया अनेक चिड़िया

बच्चों, आज मैं तुम्हें एक ऐसी एनिमेटेड फिल्म के बारे में बताने जा रही हूँ, जिसे देखकर तुम्हारे मम्मी-पापा बड़े हुए हैं. इस एनिमेटेड फिल्म का नाम है "एक अनेक एकता" लेकिन हम इसे "एक चिड़िया अनेक चिड़िया" के नाम से जानते हैं.
इस फिल्म को भारत सरकार की फिल्म्स डिवीज़न ने बनाया था. 1974 में इसे दूरदर्शन पर रिलीज़ किया गया. इसकी निर्देशक विजया मुले और निर्माता भीमसेन खुराना हैं. इसे बच्चों और बड़ों ने खूब पसंद किया. ये फिल्म मज़ेदार तो है ही शिक्षाप्रद भी है. आप इसके बारे में विकीपीडिया पर और जानकारी पा सकते हैं. अभी बस ये फिल्म देखिये.




हिंद देश ... mmm mmm... हम सभी .... एक हैं ... तारा रा रा रा
भाषा अनेक हैं ... mmmm mmmm... भाषा अनेक हैं ....

यह अनेक क्या है दीदी ?
अनेक यानी बहुत सारे
बहुत सारे? क्या बहुत सारे ?
अच्छा, बताती हूँ

सूरज एक ...
चंदा एक .....
तारे अनेक ....

तारों को अनेक भी कहते हैं ?
नहीं नहीं !
देखो फिर से
सूरज एक , चंदा एक , एक एक एक करके तारे बने अनेक
ठीक से समझाओ ना दीदी

देखो देखो एक गिलहरी
पीछे पीछे अनेक गिलहरियाँ
एक तितली , ..... एक और तितली ......
एक एक एक करके हो गयी अब, अनेक तितलियाँ

समझ गया दीदी
एक उँगली , अनेक उंगलियाँ
हाँ!
दीदी दीदी वो देखो अनेक चिड़ियाँ ...

अनेक चिड़ियों की कहानी सुनोगे ....
हाँ हाँ
आ.. आ.. आ...
एक चिड़िया , एक एक करके अनेक चिड़ियाँ ..
दाना चुगने आयी चिड़ियाँ ...

सभी : दीदी हमें भी सुनाओ ना
तो सुनो फिर से ...
एक चिड़िया , अनेक चिड़ियाँ
दाना चुगने बैठ गयी थीं ...

हाय राम , पर वहाँ ब्याध ने एक जाल बिछाया था ...
ब्याध , ब्याध कौन दीदी ?
ब्याध ... चिड़िया पकड़ने वाला

फिर क्या हुआ दीदी , ब्याध ने उन्हें पकड़ लिया , मार डाला ?
हिम्मत से गर जुटे रहे तो
छोटे हो पर , मिले रहे तो
बड़ा काम भी होवे भैया ..
बड़ा काम भी होवे भैया ..

एक ..दो ..तीन ..
चतुर चिड़ियाँ... , सयानी चिड़ियाँ...
मिलजुल कर , जाल ले कर , भागी चिड़ियाँ
फुर्र.. ररर ...

दूर , एक गाँव के पास , चिड़ियों के दोस्त , चूहे रहते थे
और उन्होंने , चिड़ियों का जाल काट दिया
तो देखा तुमने , अनेक जब एक हो जाते हैं तो कैसा मज़ा आता है
दीदी मैं बताऊँ ...

हो गए एक ...
बन गयी ताकत ..
बन गयी हिम्मत ...

दीदी अगर हम एक हो जाएँ तो बड़ा काम कर सकते हैं ?
हाँ हाँ , क्यों नहीं
तो इस पेड़ के आम भी तोड़ सकते हैं ?
हाँ , तोड़ सकते हैं , पर जुगत लगनी होगी ...

अच्छा , जुगत , वाह ... बड़ा मज़ा आयेगा ..
हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं , -2
रंग-रूप वेश-भाषा चाहे अनेक है -2
एक-अनेक ... एक-अनेक ...

सूरज एक , चंदा एक , तारे अनेक ,
एक तितली , अनेक तितलियाँ
एक गिलहरी , अनेक गिलहरियाँ
एक चिड़िया , एक एक ... अनेक चिड़ियाँ


बेला गुलाब जूही चंपा चमेली ..... -2
फूल हैं अनेक किन्तु माला फिर एक
है ...-2 

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

लिल्की- एक लड़की की कहानी

बच्चों, आपने अपने आस-पास बहुत से ऐसे बच्चों को देखा होगा, जो घरों में काम करते हैं. वे आपकी तरह स्कूल नहीं जाते. क्या आप उनके साथ खेलते हैं? क्या आपने कभी सोचा है कि वे बच्चे कैसा महसूस करते हैं, जब आप खेल रहे होते हैं और वे घरों में काम कर रहे होते हैं?

'लिल्की' भी दस साल की ऐसी ही लड़की की कहानी पर बनी फिल्म है. यह फिल्म 2006 में Children's Film Society, India ने बनायी है. लिल्की गढ़वाल के अपने गाँव से गाँव की एक दीदी के साथ शहर उनके बच्चे 'बिट्टू' की देखभाल करने आती है. जब उसके काम्प्लेक्स की लड़कियों को पता चलता है कि वह एक नौकरानी है, तो उसके साथ खेलना बंद कर देती हैं. लिल्की पढ़ने में बहुत होशियार थी. वह अपने गाँव के स्कूल में कक्षा में फर्स्ट आती थी, लेकिन यहाँ पढ़ने नहीं जाती है क्योंकि उसे बिट्टू को सँभालना पड़ता है. 

क्या लिल्की से उसकी बिल्डिंग की लड़कियाँ फिर से दोस्ती करती हैं? क्या वह यहीं रहती है या अपने गाँव वापस चली जाती है? क्या वह पढ़ने जाती है या नौकरानी बनकर रह जाती है? अगर आपको इन सवालों के जवाब जानने हैं तो ये फिल्म देखिये. आपको ज़रूर अच्छी लगेगी.


मंगलवार, 7 अप्रैल 2015

काजल कुमार के कार्टून

बच्चों, काजल कुमार जी एक प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट हैं । उनके कार्टून अनेक अखबारों में प्रकाशित होते हैं । उनका खुद का ब्लॉग भी है, जहाँ वे रोज़ नए-नए कार्टून पोस्ट करते हैं । उन्होंने मेरे कहने पर खास आपके लिए कुछ कार्टून भेजे हैं, जिन्हें मैं यहाँ पोस्ट कर रही हूँ । दो कार्टून पहले ही इस ब्लॉग में सबसे नीचे लगा रखे हैं । इन्हें भी बाद में ब्लॉग के साइड बार में लगा दूँगी, जिससे आप हमेशा देख सकें । देखिये और मज़े लीजिए-





सोमवार, 6 अप्रैल 2015

बातूनी मैना (कहानी)

बच्चों आज एक कहानी सुनाती हूँ। यह कहानी मैंने बचपन में 'बालहंस' नाम की पत्रिका के लिए लिखी थी जो उसके लघुकथा विशेषांक में छपी भी थी। मुझे अब थोड़ी-थोड़ी याद है लेकिन मैं उसे नए ढंग से यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ.-

एक जंगल में एक मैना रहा करती थी। वह थी तो बहुत सीधी-सादी, किसी को परेशान भी नहीं करती थी, लेकिन बोलती बहुत थी। जब कोई जानवर बात करता तो मैना उसकी बात दोहराने लगती। इसलिए सभी उससे दूर भागते रहते थे। जंगल के जानवर उसे "बातूनी मैना" कहते थे। बेचारी मैना की बहुत ज़्यादा बोलने की आदत के कारण कोई उससे दोस्ती नहीं करता था। लेकिन मैना फिर भी किसी से नाराज़ नहीं होती। वह अकेले ही डाली-डाली फुदक-फुदककर गीत गाती रहती थी।

एक दिन सभी जानवर अपने-अपने खाने की तलाश में इधर-उधर व्यस्त थे। बातूनी मैना डाल पर बैठकर आराम कर रही थी। तभी उसने देखा कि जिस पेड़ पर वह बैठी थी, उसी के नीचे अजीब सी वेशभूषा में कुछ मनुष्य खुसुर-फुसुर बातें कर रहे थे। मैना अपनी आदत के मुताबिक़ उनकी बातें सुनने लगी। वे कह रहे थे- "हम रात को आकर जाल फैलायेंगे। गड्ढा खोदेंगे और उसे घास से ढँक देंगे। कोई न कोई जानवर तो गिरेगा ही उसमें।"

मैना उनकी बात का मतलब तो नहीं समझ पायी लेकिन हमेशा की तरह बात दोहराने लगी "गड्ढा खोदेंगे-गढ्डा खोदेंगे, जाल बिछायेंगे-जाल बिछायेंगे।" जब उन आदमियों ने मैना को बोलते सुना तो उनमें से एक कहने लगा "चलो, अभी कहीं और चलकर बात करें। ये चिड़िया तो टायं-टायं करके बोलने ही नहीं दे रही है।" तभी दूसरा बोला "अब क्या बात करनी है? योजना तो बना ही ली है। अब रात में आयेंगे।" फिर सब बोले "चलो!" और वहाँ से चले गए।

भोली-भाली बातूनी मैना बिना कुछ समझे बड़ी देर तक उनकी बातें दुहराती रही। फिर थककर सो गयी। शाम को जब सभी जानवर अपने-अपने काम से वापस लौटे तो उनकी चहल-पहल से मैना जाग गयी। उसे उन आदमियों की बातें याद आयी तो वो फिर से दोहराने लगी- "गड्ढा खोदेंगे-गढ्डा खोदेंगे।जाल बिछायेंगे-जाल बिछायेंगे। रात में आयेंगे-रात में आयेंगे।"मैना तो हमेशा ही बक-बक करती रहती थी। इसलिए किसी ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन 'उछलू' बन्दर ने गौर किया कि आज मैना कुछ अलग सी बातें कर रही है। उसने जब ध्यान दिया तो उसे लगा कि ज़रूर कुछ गड़बड़ है।

उछलू बन्दर ने  सभी जानवरों को बुलाकर कहा-"देखो, ये बातूनी क्या बोल रही है।" सभी जानवर ध्यान से सुनने लगे। मैना आँखें बंद करके सारी बातों को ऐसे दोहरा रही थी, जैसे राग मल्हार गा रही हो--"गड्ढा खोदेंगे-गढ्डा खोदेंगे। जाल बिछायेंगे-जाल बिछायेंगे। रात में आयेंगे-रात में आयेंगे।" 'किट्टू' गिलहरी बोली- "उछलू, ये तो शिकारियों की बातें लगती हैं। गढ्डा खोदकर जाल वही बनाते हैं हाथियों को फँसाने के लिए।" "हाँ-हाँ, फिर ये हाथी को मारकर उसके दाँत तोड़ लेते हैं। हमें हाथियों के सरदार 'मोटामल' को तुरंत खबर करनी चाहिए।" खरगोश 'कुद्दीलाल' ने कूद-कूदकर कहा। "हाँ-हाँ सही कहा" सभी जानवर एक साथ बोल पड़े।

फिर सभी जानवर मिलकर हाथियों के टोले की ओर निकल पड़े। उन्होंने हाथियों के सरदार 'मोटामल' को पूरी बात बतायी और सावधान रहने को कहा। हाथी सतर्क हो गए और घने जंगल में अंदर की ओर जाकर छिप गए। रात में शिकारी आये तो उन्हें एक भी जानवर नहीं मिला। शिकारी समझ गए कि जानवर सतर्क हो गए हैं और अब उनका जाल बिछाना व्यर्थ है। इसलिए वे निराश होकर वापस चले गए।

दूसरे दिन सुबह सभी जानवर इकट्ठे होकर मैना के पास गए। हाथियों के सरदार 'मोटामल' ने मैना से कहा- "प्यारी मैना, हमने तुम्हें कभी दोस्त नहीं बनाया, लेकिन तुमने बुरा नहीं माना और हमारी जान बचाई। अब से हम सब तुम्हारे दोस्त हैं।" मैना ने अपनी आदत के अनुसार मोटामल की बात दुहराई- "हम सब तुम्हारे दोस्त हैं।" सारे जानवर हँस पड़े। साथ में मैना भी हँसने लगी। आज मैना की वजह से जंगल में सुख-शान्ति थी और मैना को खूब सारे दोस्त मिल गए थे।


शनिवार, 4 अप्रैल 2015

नानी, कहानी सुनाओ... नहीं नहीं, नानी, कहानी सुनो....

प्यारे बच्चों, हम सब लोगों को हमारी नानी बहुत प्यारी होती है. होती है ना... मम्मी से कोई बात मनवानी हो तो उसका सबसे आसान तरीका पहले नानी को पटाना ही होता है... नानी मान गयी तो बस, मामला फिट...
अब नानी की बात हो और कहानी की बात ना हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता. वो राजा-रानी, परियां, चाँद पर की बुढ़िया, कुबड़ा जादूगर... कई तरह की हजारों हजार कहानियों का पुलिंदा होता है नानी के पास. पर क्या कभी ऐसा भी होता है कि बजाए नानी के कहानी सुनाने के, बच्चे नानी को कहानी सुनाते हैं? है ना अजीब बात... पर ऐसा भी होता है... अब चॉकलेट या आइसक्रीम के लिए नानी से पैसे लेने हों तो कम से कम एक कहानी तो सुनानी ही पड़ेगी ना नानी को... चलो तो तुम भी ऐसी एक कहानी पढो और सुनो... पहले नया एनिमेटेड विडियो और साथ में ओरिजिनल ब्लैक-एंड-वाइट विडियो भी... ध्यान रखना, ओरिजिनल विडियो हालांकि 65 साल पुराना है, पर तुम अब भी इसके स्टेप्स प्रैक्टिस कर के अपनी नानी को खुश कर सकते हो....

नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए,
बाकी जो बचा था काले चोर ले गए.

खा के पी के मोटे हो कर चोर बैठे रेल में,
चोरों वाला डब्बा कट कर पहुँचा सीधा जेल में,

नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए,
बाकी जो बचा था काले चोर ले गए.

उन चोरों की खूब खबर ली मोटे थानेदार ने,
मोरों को भी खूब नचाया जंगल की सरकार ने.

नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए,
बाकी जो बचा था काले चोर ले गए.

अच्छी नानी प्यारी नानी, रूस-रूसी छोड़ दे,
जल्दी से एक पईसा दे दे तू कंजूसी छोड़ दे.

नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए,
बाकी जो बचा था काले चोर ले गए.