शनिवार, 13 अप्रैल 2019

कुटकुट और पाप्पा

पाप्पा बोले कुटकुट से
"बेटू ! इधर आओ !"
कुटकुट बोली पाप्पा से
"अम नई आते जाओ !"
पाप्पा बोले कुटकुट से
"बेटू ! पढ़ने बैठो।"
कुटकुट बोली पाप्पा से
"पैले तौफ़ी लाओ।"
पाप्पा बोले कुटकुट से
"फिर शुरू शैतानी ?"
कुटकुट बोली पाप्पा से
"मुजको तौफ़ी खानी।"
आख़िर हार के पाप्पा जी ने
कुटकुट को दी टॉफ़ी
तब जाकर कुटकुट जी ने
खोली अपनी कॉपी।
[ कुटकुट ]
-बाबुषा 

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

"""आओ बच्चों चलें स्कूल"""
आओ बच्चों चलें स्कूल
तुम नन्हे नन्हे प्यारे फूल
आओ बच्चों चलें स्कूल 
स्कूल में मिल सब खेलेंगे
छुक छुक रेल के रेले में
चटखारे हम ले लेंगे
कैथा इमली हो थैले में
सीखेंगे हम ज्ञान यहाँ पे
तकनिकी विज्ञान यहाँ पे
A, B, C, D आना है
अ, आ, इ, ई गाना है
1, 2, 3 सुनाना है
जोड़ना और घटाना है
हमको पढ़ लिख जाना है
एक अच्छा राष्ट्र बनाना है
क्यों उदास बैठे हो घर में
आओ हो लो साथ डगर में
आओ बच्चों चलें स्कूल
तुम नन्हे नन्हे प्यारे फूल
आओ बच्चों चलें स्कूल

संस्कृति और संस्कार है जाना
योगा, और अभ्यास सिखाना
देखो भैय्या भूल ना जाना
सरकारी स्कूल में आना
सबको है अब नाम लिखाना
सबको है शिक्षित हो जाना
तुम सब भारत के वासी हो
यह स्कूल तुम्हारे हैँ
हम सब सेवक भारत माँ के
यह बच्चे हमको प्यारे हैँ
मत पैसा बर्बाद करो तुम
इन पूंजीपतियों के बंधे में
मत झोको भविष्य बच्चों का
शिक्षा के गोरख धंधे में.
आओ बच्चों चलें स्कूल
तुम नन्हे नन्हे प्यारे फूल
आओ बच्चों चलें स्कूल

तुम चंदा जैसे चमकोगे
सूरज सा तुम दमकोगे
रामु, श्यामू, मोहन प्यारे
आओ हो लो साथ हमारे
गीता, रीता, छोटी, रानी
तुम भी बन जाओ अब ज्ञानी
मुफ्त में शिक्षा, मुफ्त में ज्ञान
हर अभिभावक का सम्मान
प्रोजेक्टर से होए पढ़ाई
मिले पुष्ट भोजन भी भाई
दूध, फल और MDM खाओ
पहले अपनी सेहत बनाओ
स्वस्थ शरीर में स्वस्थ है मन
खुश है देखो सब जन जन
ड्रेस मिलेगी यहाँ फ्री
स्वेटर , जूता मोजा भी
बस्ता भी हम देंगे तुमको
किताबें भी मुफ्त मिलीं
खेलने का सामान बहुत है
गुरूजी भी तो बड़े मस्त है
खेल खेल में सिखलाते हैँ
क्रियाएं खूब कराते हैँ
स्कूल तुम्हारे बहुत हैँ सुन्दर
भाग के आओ इसके अंदर
नया सत्र हम शुरू करें
शिक्षा का संकल्प है लें

आओ बच्चों चलें स्कूल
तुम नन्हे नन्हे प्यारे फूल
आओ बच्चों चलें स्कूल

- © ज़ैतून ज़िया

गुरुवार, 14 मार्च 2019

चंदा मामा

चंदा  मामा आसमान  में  रोज़ चले  तुम आते हो
अपनी इन मुद्राओं से तुम मेरा  जी  ललचाते  हो।
कभी हो आधे, कभी हो पूरे ,कभी तीर बन जाते  हो
कैसे करते हो तुम ये करतब ,यूं आकार बदलने  का।
कहां  से सीखा है  ये जादू , तुमने करतब करने का
मै  तो वैसा ही  रहता हूं , दिन  रात और सांझ सवेरे।
मुझको भी वैसा बनना है , जैसे रूप है तुमने घेरे 
ये जादू आसमान में चलता, तो सूरज क्यूँ गोल ही रहता।
कया तुम सूरज से ज्ञानी हो , जो इतना सब कर लेते हो
वो देता दिन को उजियारा , तुम रैन उजेरी कर देते हो ।।

-जैतून ज़िया

सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

इतने फूल कहां से लाओगे, प्यारे बच्चों!

प्यारे बच्चो,

अंकल को फूल ज़रुर दो लेकिन याद रखो कि तुम्हारे पापा भी किसीके अंकल हैं। और अंकल भी किसीके पापा हैं। अपने पापा पर भी नज़र रखो, कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन कोई तुम्हारा दोस्त, कोई बच्चा तुम्हारे पापा को पूरा बग़ीचा दे जाए। ज़रा अपना घर देखो, क्या यह स्वीकृत नक़्शे के हिसाब से ही बना है ? इसकी बालकनी, इसके कमरे ज़रा ध्यान से देखो। अपने पानी-बिजली के मीटर देखो, क्या ये ठीक से चलते हैं ? उससे भी पहले यह देखो कि क्या ये चलते भी हैं ? उससे भी पहले यह देखो कि क्या ये लगे भी हैं ? अगर तुम्हारा ऐडमीशन किसी जुगाड़ या डोनेशन से हुआ है तो अपनेआप को भी सड़क पर फूल भेंट करो।

यह भी देखो कि तुम्हे फूल देना किसने सिखाया ? उसकी ख़ुदकी ज़िंदग़ी में कितनी ईमानदारी है ? कहीं कोई अपनी राजनीति के लिए तुम्हारा इस्तेमाल तो नहीं कर रहा ? अगर तुम्हे लगता है कि ऐसा हो रहा है तो सबसे पहले उन अंकल को फूल दो जो अपनी राजनीति चमकाने के लिए तुम्हे मिस्यूज़ कर रहे हैं। ध्यान रहे कि राजनीति यहां सिर्फ़ राजनीति में नहीं होती, घर-घर में होती है। अगर अंदर तुम अपने पापा की बेईमानियां छुपा लेते हो और बाहर अंकलों को फूल देते हो तो तुम भी राजनीति कर रहे हो। राजनीति इसीको कहते हैं मेरे प्यारे बच्चो।

सभी बच्चे अपने मां-बाप को महान समझते हैं। तुम जिन अंकल को फूल दे रहे हो उनके बच्चे भी अपने पापा को महान समझते आए हैं। तुम्हारे फूल से वो अंकल चोर से दिखने लगेंगे। तब उनके बच्चों को कैसा लगेगा ? महान लोग ऐसे होते हैं ? वैसे तुम्हे सोचना चाहिए कि सभी मां-बाप महान होते हैं तो फिर चोरी कौन करता है, भ्रष्टाचार कौन करता है, बलात्कार कौन करता है, टैक्स कौन चुराता है, लूटमार कौन करता है, मकान में से दुकान कौन निकालता है, मकान में नाजायज़ कमरे और बालकनी कौन बनाता है ? अगर मां-बाप यह नहीं करते तो क्या बच्चे करते हैं ? फिर तो बात तुम पर आ जाएगी, प्यारे बच्चो!

कहीं तुम किसीको फूल इसलिए तो नहीं दे रहे कि किसी टीवी वाले अंकल ने तुमसे कहा है कि अगर फूल दो तो तुम्हें टीवी पर दिखाया जाएगा ? इसका मतलब है कि तुम बस थोड़ी देर के लिए अच्छा और साहसी दिखने का अभिनय कर रहे हो। यह राजनीति भी है, पाखंड भी है, मौक़ापरस्ती भी है और बेईमानी भी है। इसके लिए ख़ुदको भी फूल दो और टीवी वाले अंकल-आंटियों को भी फूल दो। वैसे इतने फूल तुम लाओगे कहां से, प्यारे बच्चो !? इस तरह तो देश के सारे बाग़-बग़ीचे उजड़ जाएंगे।

मैं तो कहता हूं कि फूलों का मिस्यूज़ किसी भी हालत में नहीं होना चाहिए। और तुम तो ख़ुद ही फूल जैसे हो। 

ज़रुरी हुआ तो फिर मिलेंगे-


तुम्हारा दोस्त,

-संजय ग्रोवर
20-02-2017

बुधवार, 30 सितंबर 2015

गधे की फोटो (हास्य कथा)

(अपने जीवन की सच्ची घटना पर आधारित यह कहानी मैंने बारह-तेरह साल की उम्र में लिखी थी. कहानी 1994 में राजस्थान पत्रिका प्रकाशन की बाल पत्रिका बालहंस में प्रकाशित हुयी थी. इसे बाद में इसी प्रकाशन से 2010 में "हास्य कथाएँ" नामक हास्य कथा संकलन में सम्मिलित करके प्रकाशित किया गया.)

यह उस समय की बात है जब हमलोग मगरवारा में रहते थे. यह उन्नाव जिले के अंतर्गत आने वाला छोटा सा स्टेशन है. मेरे पिताजी यहाँ स्टेशन मास्टर थे और हमलोग उनके साथ रेलवे कॉलोनी में रहते थे.

मगरवारा गाँव के बीच स्थित है, इसलिए यहाँ गाँव जैसा ही वातावरण है. रेलवे कॉलोनी के लोग उस समय बहुत ही प्रेम से मिलजुलकर रहते थे. 

एक बार की बात है, कहीं से एक गधा चरते-चरते रेलवे कॉलोनी में आ पहुँचा. तभी किसी लड़के ने उस गधे के गले में बंधी पतली सी रस्सी पकड़ ली. गधे को इस बात की खबर भी न लगी कि उस लड़के ने उसे पकड़कर बाँध दिया है और वह आराम से घास चरता रहा.

अपने बरामदे में खड़ी होकर मैं यह दृश्य देख रही थी. वो लड़का गधे को बाँध कर चला गया था. मुझे उस गधे की फोटो खींचने की बात सूझी. तभी उधर से रमेश चाचा जो कि मगरवारा स्टेशन पर पोर्टर थे, आ पहुँचे. मैंने उनसे कहा 'चाचाजी, ज़रा आप इस गधे को पकड़े रहिये. मैं इसकी फोटो खीचूँगी.' 

रमेश चाचा ने आश्चर्य से पूछा 'गधे की फोटो?'

'हाँ, आप इसे पकड़िये तो मैं अभी कैमरा लाती हूँ' कहते हुए मैं तुरंत अंदर घर में आई और दीदी से अपने मन की बात कही. दीदी पहले तो हँसी, फिर कैमरा ले जाने की अनुमति दे दी. मैं कैमरा लेकर बाहर आ गयी. पीछे-पीछे मेरा भाई भी आ गया. बाहर निकली तो देखा कि रमेश चाचा गधे को पकड़े हुए हैं. मैंने खुश होकर कैमरा ठीक करना शुरू कर दिया. 

मुझे कैमरा लिए देखकर कुछ बच्चे और कुछ उधर से निकलने वाले ग्रामीण मुसाफिर भी उत्सुकतावश रूककर देखने लगे.तभी एक बच्चे ने पूछा, "दीदी, हम भी पकड़ लें गधे को." मैं समझ गयी कि गधा तो इनसे रुकने से रहा, असल में ये गधे के साथ अपनी फोटो खिंचवाना चाहते हैं. खैर, मैंने हाँ कर दी और कैमरा ऑन करके फोकस लगाने लगी.

उधर गधे जी ने जब अपने आसपास जमा भीड़ को देखा तो भड़क गए. मैंने चिल्लाकर कहा, "अरे चाचा जी, उसे ज़रा ज़ोर से पकड़िये, रस्सी पतली है. तुड़ाकर भाग जाएगा." चाचाजी ने उसे और मजबूती से पकड़ लिया और मेरी बात सुनकर और लोग भी गधे को पकड़ने आ गए. 

अब मेरे कैमरे में फ्लैश वाली बत्ती जल चुकी थी. मैंने फोकस भी ठीक कर लिया था. कैमरे के फ्रेम में उस समय वह गधा और उसे पकड़े हुए 12-13 आदमी और बच्चे दिखाई पड़ रहे थे, जिन्हें दरअसल अपनी फोटो खिंचवाने का ज़्यादा शौक था. अब वे लोग गधे को मजबूती से पकड़े हुए थे. कुछ लोग झुककर उसका पैर पकड़े थे, कुछ लोग पूंछ और कुछ लोग गले में बंधी रस्सी. गधे ने अपनी जान आफत में देखकर जोर-जोर से चिल्लाना आरम्भ कर दिया. लेकिन फोटो खिंचवाने वालों को इसकी कोई फ़िक्र नहीं थी. 

"रेडी" कहकर जैसे ही मैंने अपने कैमरे का बटन दबाया तो स्थिति यह बनी कि गधे को छोड़कर सब एकदम सीधे खड़े हो गए और गधा रफूचक्कर हो लिया.

जब फोटो बनकर आई तो मैंने सर पीट लिया. जिसकी फोटो खींचना चाहती थी, वह गधा तो उसमें था ही नहीं, हाँ, बारह-तेरह आदमी और बच्चे ज़रूर खींसे निपोरे सावधान खड़े थे. फिर भी वह फोटो आज भी सबको गधे की फोटो कहकर ही दिखाई जाती है :) 

-आराधना चतुर्वेदी मुक्ति 

सोमवार, 14 सितंबर 2015

नन्दी की पीठ का कूबड़ (कहानी)

(बच्चो, आज प्रस्तुत है एक कहानी हमारे मित्र चंदन कुमार मिश्र के सौजन्य से)
कहानीकार- दामोदर धर्मानंद कोसाम्बी
हिन्दी अनुवाद: अरविन्द गुप्ता
(प्रोफेसर कोसम्बी द्वारा रचित बच्चों के लिए शायद यह एक मात्र कहानी है। यह कहानी उन्होंने अपने सहयोगी दिव्यभानुसिंह चावडा को, 1966 में, अपनी असामयिक मृत्यु से कुछ दिन पहले ही भेजी थी। यह कहानी किसी भी भाषा में पहली बार प्रकाशित हो रही है।)
(गाँव के वार्षिक मेले का अवसर है। उसमें जानवरों की खरीद-फरोख्त का अच्छा कारोबार होगा। गाँव के मुखिया का बेटा राम, सुबह-सुबह अपने नन्दी बैल को चराने ले जाता है। शाम को नन्दी जानवरों की जलूस की अगुवाई करेगा। जंगल के एक छोर पर तालाब है। धीरे-धीरे वहाँ बूढ़े पीपल के पेड़ के नीचे राम के बहुत से मित्र इकट्ठे हो जाते हैं। वे सभी एक सवाल का जवाब खोजने की कोशिश करते हैं – भारतीय बैलों के पीठ पर कूबड़ क्यों होता है?)

रामः नन्दी! यह बताओ कि बैलों की पीठ पर ही कूबड़ क्यों होता है? जरा भैंस को देखो। और उधर घोड़े को देखो। उनकी पीठ तो एकदम चपटी है।
तभी राम का कुत्ता मोती दौड़ता और हाँफता हुआ आया। मोती ने कहा, ‘भौं, भौं! क्या तुम्हें पता है – जब मैं बिल्ली को पकड़ने दौड़ता हूँ तो वो अपनी पीठ मेहराब जैसे ऊपर उठाती है। नन्दी की पीठ के साथ भी शायद यही हुआ होगा। उसे किसी ने डराया होगा।उसके बाद मोती और नन्दी पानी पीने चले गए।
टर! टर! टर!मेंढक पानी से कूदते हुए टर्राया। हमारे बहादुर नन्दी को डराना काफी मुश्किल काम है। कुछ दिन पहले शेर ने पूरा दम लगाया फिर भी उसे भगा नहीं पाया। अब सब देखो – मैं कैसे फूलकर कुप्पा होता हूँ। मुझे लगता है कि नन्दी ने मेरी तरह ही अपने कूबड़ में हवा भर ली होगी।
यह सुनकर बूढ़ा नाग, पीपल के पेड़ की जड़ के बिल में से बाहर निकला। हिस! हिस! उसने फुँफकारते हुए कहा, हवा से सिर्फ छाती भरती है, पीठ नहीं। मैंने एक बार मोटा चूहा निगला और फिर मैं पूरे हफ्ते सोता रहा। तब मेरा शरीर भी बीच में फूल गया था। नन्दी ने भी जरूर कोई मोटी चीज निगली होगी।
हा! हा! हा!भालू चीखते हुए जंगल में से बाहर आया। नन्दी हमेशा छोटी-छोटी चीजें ही खाता है। तुम्हें क्या लगता है  उसने एक बड़ा कद्दू निगला है? पिछले साल मैंने मधुमक्खियों के छत्ते से शहद चुराया था। उसके बाद मधुमक्खियों ने मुझे जम कर काटा। उससे मेरा चेहरा एक तरफ बुरी तरह से फूल गया। मुझे लगता है कि हमारे नन्दी को भी किसी ने काटा होगा।
इसी बीच बंदर भी पीपल के पेड़ से कूदता हुआ नीचे आया। खों! खों! खों! देखो इस पेड़ के फल खाने के बाद मेरे नीचे के गाल किस तरह फूल जाते हैं। नन्दी घास चरता है। उसने जरूर उस घास को अपने कूबड़ में उसे छिपाया होगा। छिपी घास को ही वो बाद में धीरे-धीरे करके चबायेगा। देखो वो कैसे घास की जुगाली कर रहा है?’
तुम आखिर एक लालची बंदर की तरह ही बोले,’ राम ने कहा। देखो, नन्दी का कूबड़ हमेशा एक-जैसा ही रहता है। फल खाने के बाद तुम्हारे गाल एकदम पिचक जाते हैं। पर नन्दी का कूबड़ बिल्कुल एक-समान ही रहता है।
नन्दी ने कहा, ‘मुझे लगता था कि जिस प्रकार सभी बैलों के सींग होते हैं वैसे ही सभी बैलों का कूबड़ भी होता होगा। कल मुझे जिला स्तरीय प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार मिला। वहाँ पर यूरोप से लाये कुछ बैल भी थे। मुझे वो बैल कुछ अजीब लगे! उनके न तो सींग थे और उनकी पीठ भी एकदम चपटी, सपाट थी। यूरोप के बैल एक-दूसरे से फुसफुसाकर कह रहे थे, ‘जरा देखो उस कुबड़े बैल को, जिसे पहला ईनाम मिला है! मुझे इस सबके पीछे मनुष्य की ही कारिस्तानी नजर आती है। पीठ में कूबड़ के कारण बैल पर हल का जुआ अच्छी तरह बैठता है। कूबड़ के कारण ही मैं हल और बैलगाड़ी को बेहतर तरीके से खींच पाता हूँ। यूरोप के बैलों ने मुझे बताया – उनके देशों में जुताई के लिए पहले घोड़ों का उपयोग होता था। अब खेतों की जुताई मशीनों द्वारा की जाती है।
राम ने इससे असहमति जतायीः इस पुस्तक के अनुसार भगवान शिव नन्दी की सवारी करते हैं। भगवान ने नन्दी की पीठ पर कूबड़ इस लिए बनाया जिससे वो उसपर झुककर कुछ आराम कर सकें। देखो, इस चित्र में भगवान कितनी आसानी से नन्दी पर सवारी कर रहे हैं। हमारे गाँव का कुलदेवता तो स्वयं यह पीपल का पेड़ है। चलो, अब पीपल के पेड़ से ही नन्दी के कूबड़ का कारण पूछते हैं।
बूढ़े पीपल के पेड़ ने उत्तर दियाः नन्दी ने सही ही कहा। मनुष्य ने बैलों को अपने लिए बनाया है। इंसानों ने ही मोती जैसे कुत्ते बनाए हैं। इंसानों ने ही धान और गेहूँ बनाया है। साथ-साथ, मनुष्य ने खुद को भी बनाया है।
रामः यह कैसे सम्भव है? हमारा नया घर पिछले वर्ष बना था। कई लोगों ने उसे मिलकर बनाया था। उसके लिए पेड़ों को काटा गया। फिर लट्ठों और तख्तों को लम्बाई में काटा गया। इसके लिए कई लोगों को मेहनत करनी पड़ी। उसके बाद पूरे फ्रेम को कीलें ठोक कर जोड़ा गया। मैंने छत पर फूस बिछाने में अपने पिताजी की मदद की। परंतु हमने नन्दी को कैसे बनाया? वो छोटे बछड़े जैसा पैदा हुआ था और तभी से उसके पीठ पर कूबड़ है। दो साल पहले मोती एकदम छोटा पिल्ला था। मैंने बस इतना ही किया। माँ से निगाह बचाकर अपनी थाली में से मोती को कुछ अपना खाना खिलाया। हमने तो मोती को कुत्ता नहीं बनाया। अनाज पैदा करने के लिए हमने खेत में सिर्फ बीज बोए। इससे, बस चार महीने में हमें उसी प्रकार का बहुत सारा और अनाज मिला। हमने तो वो अनाज नहीं बनाया।
पीपल का पेड़ः राम तुम एक बहुत होशियार लड़के हो। यही सीखने का अच्छा तरीका है – बस प्रश्न पूछते रहो। तब तक प्रश्न पूछो जब तक तुम सच की जड़ तक नहीं पहुँचो। अब ध्यान से सुनो। मैं तुम्हें वही बताने जा रहा हूँ जिसे मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है। आज से हजारों साल पहले मनुष्य लगभग उसी तरह रहते थे जैसे आज तुम्हारा मित्र बंदर रहता है। वे भोजन और फलों के लिए पेड़ों पर चढ़ते। वो बेर और कुकुरमुत्ते तोड़ते। वे जमीन के अंदर से कंद खोदकर निकालते। मनुष्य बिल्कुल भालू की तरह ही शहद इकट्ठा करते। वे कभी-कभी भालू की तरह ही अपने पंजों से मछलियों का शिकार करते। वे मांस के लिए अन्य जानवरों का शिकार करते। तब न तो आग थी, न हल और न ही घर और झोपडि़याँ। तब गाँव भी नहीं थे। फिर ग्राम देवता का सवाल ही पैदा नहीं होता है। लोग इधर-उधर से भोजन एकत्र कर अपना जीवन चलाते थे। परंतु अब लोग अपना भोजन उगाते हैं।
रामः पर अगर हम इस प्रकार जी सकते थे तो फिर हमने क्यों भोजन उगाया? देखो मेरे पिता और बड़ा भाई खेतों पर कितनी मेहनत करते हैं। क्या हम इतनी मेहनत किए बिना जिन्दा नहीं रह सकते?’
पीपल का पेड़ः हर समय पर्याप्त मात्रा में भोजन इकट्ठा करना सम्भव नहीं होता है। कभी-कभी सूखा पड़ता है जिससे नदी-नाले सूख जाते हैं। मछलियाँ मर जाती हैं। शिकारी जानवर दूर-दराज चले जाते हैं। फल भी नहीं मिलते हैं। एक बात और है – पूरे साल भर चीजें इकट्ठी करना सम्भव नहीं होता है। इंसान को भोजन इकट्ठा करके उसे संभाल-संजोकर रखना सीखना पड़ा। बारिश के बाद की फसल अक्सर बहुत अच्छी होती है। आप पूरे साल उस फसल का अनाज खा सकते हैं। अगर अधिक उपज होगी तो उससे ज्यादा लोग जीवित रह पायेंगे। मैं अपनी सबसे ऊपर की टहनी से पाँच बड़े गाँवों को देख सकता हूँ। पुराने जमाने में इस पूरे इलाके में मुझे पाँच लोग भी नजर नहीं आते थे।
रामः ठीक है। पर लोगों ने मेरे मोती जैसे कुत्ते क्यों बनाए?’
पीपल का पेड़ः पुराने जमाने में शिकार के समय भेड़िये भी आदमियों की तरह शिकार का पीछा करते थे। यह देख मनुष्यों ने कुछ भेडि़यों के बच्चों को पाला। इनमें से अधिकतर बड़े होकर दुबारा जंगली भेड़िये बने और चले गए। परंतु उनमें से कुछ मनुष्यों के साथ रहने लगे। वे लोगों के लिए शिकार का पीछा करने लगे। इसके बदले में लोग उन्हें बचा हुआ मांस और हड्डियाँ खाने को देते। इस प्रकार जंगली भेड़िये पालतू बने। अब हम उन्हें कुत्ते के नाम से जानते हैं।
रामः मुझे खुशी है कि लोगों ने ऐसा किया। अगर मोती नहीं होता तो मैं भला क्या करता? परंतु नन्दी की पीठ पर कूबड़ किस तरह आया? शायद वो शुरू से ही था। मुझे अभी तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला।
पीपल का पेड़ः मनुष्यों के लिए जंगली हिरणों का लगातार पीछा करना काफी कठिन काम था। गाय-बैल भी जंगली जीव थे। परंतु वो धीमी गति से चलते थे। मनुष्य मांस के लिए उनका पीछा करते। कुछ समय बाद उन्होंने मोती की तरह ही कुछ गाय-बैल के बछड़ों को भी पालतू बनाया। इसके लिए उन्होंने सबसे तगड़े बछड़ों को चुना। उनमें से कुछ की पीठ पर छोटा कूबड़ था। कूबड़ के कारण लोगों को अधिक मांस मिलता था। इसके लिए वो लगातार कूबड़ वाले बछड़ों को चुनते रहे और उन्हें भरपेट खाने को देते रहे। इससे धीरे-धीरे कूबड़ बड़ा होने लगा। मनुष्यों को कूबड़ वाले गाय-बैलों को पालतू बनाना ज्यादा आसान लगा। गायें दूध देतीं। अब धीरे-धीरे लोग शिकार करने की बजाए गाय-बैल पालने लगे। इस तरह धीरे-धीरे नन्दी जैसे, बड़े कूबड़ वाले बैल विकसित हुए।
रामः यह तो बहुत होशियारी की बात है। पर यह अनाज कैसे विकसित हुए?’
पीपल का पेड़ः सदियों पहले मैंने लोगों को भूख मिटाने के लिए पत्ते और घास के बीज खाते हुए देखा था। इसके अलावा खाने को कुछ और नहीं था। धीरे-धीरे उन्होंने सबसे मोटे बीजों को छाँट कर अलग किया। सभी घासें एक-जैसी नहीं होती हैं। लोगों ने पाया कि अच्छी घासें सबसे मुलायम और नर्म मिट्टी में ही अच्छी उगती हैं। मुलायम मिट्टी सभी जगह नहीं मिलती है। परंतु अगर कंद को एक नुकीली छड़ से खोदकर निकाला जाए तो अगले साल उस जगह पर अच्छी घास उगेगी। इसी कारण लोगों ने मोटी घास के बीजों को बोने के लिए जमीन में गड्ढे खोदने शुरू किए। लोग अगली फसल के लिए हमेशा सबसे मोटे बीज ही बोते।
रामः हम अनाज के बीजों को तो इस तरह नहीं बोते हैं। हम हल से खेत जोतते हैं। लोगों ने हल का उपयोग करना कैसे सीखा?’
पीपल का पेड़ः इसे सीखने में उन्हें बहुत समय लगा। पहले उन्होंने नुकीली छड़ से जमीन की सतह को खुरचा। परंतु उससे कोई खास फायदा नहीं हुआ। वैसे, कच्चा अनाज खाने में बहुत अच्छा नहीं होता। इसके लिए इंसान ने आग की जानकारी हासिल की। शुरू में उन्हें जंगल की भीषण आग से डर लगता था। वे आग और जंगली जीवों को देखकर डर से भागते थे। फिर उन्होंने खाना पकाना सीखा। वे आग से मिट्टी के बर्तन पका पाये। जमीन की गहरी जुताई के लिए उन्हें ऐसी चीज की जरूरत थी जो अधिक ताकत से खींच सके। तब उन्होंने हल के टेढ़े फल को खींचने के लिए बैलों का इस्तेमाल करना शुरू किया। हल को खींचने के लिए मनुष्य को बड़े जानवरों की जरूरत थी। इसलिए उन्होंने जानवरों को मांस के लिए मारना बंद किया। इस प्रकार उन्हें नन्दी जैसे बढि़या और ताकतवर बैल मिले।
रामः जरा कल्पना करो मेरे नन्दी को मारने की! कितनी बेवकूफी की बात है। पर अभी आपने मनुष्य द्वारा खुद अपने निर्माण का जिक्र किया था।
पीपल का पेड़ः मैंने अभी तुम्हें बताया कि किस प्रकार मनुष्य को आग ने भयभीत करना बंद किया। शुरू में लोग आग को भगवान के रूप में पूजते थे। धीरे-धीरे इंसानों ने आग बनाना सीखी। इसके लिए उन्होंने दो सूखी लकडि़यों को आपस में रगड़ा। फिर उन्होंने मुझे और नन्दी को पूजना शुरू किया। हमने मनुष्य को भोजन दिया। मेरे फल अभी भी खाने योग्य हैं। परंतु अब लोगों को मेरे छोटे भाई अंजीर के फल ज्यादा स्वादिष्ट लगते हैं। अंजीर आकार में बड़ी और मीठी होती हैं। वैसे अंजीर का पेड़ छोटा और कमजोर होता है। उसे अच्छी मिट्टी की जरूरत होती है। और साथ में ढेर पानी की भी। जंगल की सफाई, कटाई हुई। लेकिन मैं भाग्यवश बच गया। कई बार जंगल में आग लगी और मेरे परिवार के तमाम सदस्य मारे गए। मैं कई बार बाल-बाल बचा। लोग आज भी आग, नन्दी और मेरी पूजा करते हैं। पर अब यह पूजा-उपासना कम हो रही है। हमने मनुष्य को नहीं बनाया। मैं यह बात स्पष्ट करना चाहता हूँ।
रामः फिर किसने बनाया?’
पीपल का पेड़ः वर्तमान मनुष्य को खुद उसने ही बनाया है। शुरू में वो छोटा और बंदर जैसा अच्छा दोस्त था। परंतु वो निस्सहाय था। आग के बाद उसने धातुओं को खोजा। पहले तांबा। फिर लोहा। उससे पहले मनुष्य ने पत्थरों के औजार बनाए। लोगों ने शिकार के लिए तीर-कमान बनाए। उन्होंने भोजन को संचित कर सुरक्षित रखने के लिए टोकरियाँ और चमड़े के थैले बनाए। मछलियाँ पकड़ने के लिए जाल बनाए। इस प्रकार लोगों को अधिक भोजन मिल पाया। खेती-बाड़ी की कठिन मेहनत ने मनुष्य को बलवान बनाया। लोग अपने सिर पर भारी बोझ ढोने लगे। इस कारण लोग सीधे खड़े होकर चलने लगे। लोगों ने झोपडि़याँ और घर बनाये। वे कपड़े पहनने लगे। पुराने जमाने में कई बड़े-बूढ़े मनुष्य भी मेरी छाँव तले नंगे रहते थे। बिल्कुल वैसे ही जैसे तुम बचपन में नंग-धड़ंग घूमते थे।
रामः गर्मी के दिनों में मुझे अभी भी कपड़े बिल्कुल नहीं सुहाते हैं। परंतु मेरी माँ मुझे नंग-धड़ंग दौड़ने से मना करती हैं। अब मुझे आप एक बात और बतायें। यह भगवान कब आये?’
पीपल का पेड़ः पहले लोगों ने चीजों के उगने के बारे में जाना। उन्होंने उगती चीजों को अपने उपयोग के लिए इकट्ठा किया। इससे लोगों को लगा कि सभी चीजों को कोई महान माता जन्म देती है। हम अभी भी कहते हैं, ‘पृथ्वी हमारी माता है।फिर इंसान ने इकट्ठी की गई चीजों से कहीं ज्यादा चीजें खुद बनाना सीखीं। तब उसने सोचा, ‘मुझे भी किसी ने बनाया होगा?’ तब इंसानों ने भगवान को जन्म दिया। लोगों ने कहा, ‘भगवान ने हर चीज बनायी है।परंतु मुझे असली सच पता है। मैं मनुष्य के सभी भगवानों से अधिक बूढ़ा हूँ। मैंने मनुष्य को स्वयं खुद का निर्माण करते हुए देखा है। उसे अभी इस काम को और आगे बढ़ाना है। वो कभी-कभी मनुष्य जाति के अन्य लोगों के साथ बहुत क्रूर व्यवहार करता है।

अब शाम ढलने लगी थी। राम की माँ एक टोकरी में लाल फूल लेकर आयीं। उन्होंने टोकरी को तालाब के किनारे रखा। फिर उन्होंने बूढ़े पीपल के पेड़ के सामने झुक कर उसका नमन किया। राम की मित्र मंडली वहाँ से खिसक ली। माँ ने कहा, राम, इधर आओ। जल्दी तैयार हो। आज रात को नन्दी को जलूस में सबसे आगे रहना है। तुम्हें पता है कि नन्दी अन्य गाय-बैलों से पहले पैदा हुआ था। चलो, नन्दी को घर ले चलकर उसे सजायें।

बुधवार, 9 सितंबर 2015

पुश्किन की बाल-कविता : अनुवादक- मदनलाल मधु

नीले-नीले सागर तट पर
घास-फूस की कुटी बनाकर,
तैंतीस वर्षों से उसमें ही
बूढ़ा-बुढ़िया रहते थे, 
बुढ़िया बैठी सूत कातती
बूढ़ा जल में जाल बिछाता,
एक बार जो जाल बिछाया
वह बस काई लेकर आया,
बार दूसरी जाल बिछाया
वह बस जल-झाड़ी ही लाया,
बार तीसरी जाल बिछाया
मछली एक फाँसकर लाया,
किन्तु नहीं साधारण मछली,
ढली हुई सोने में असली ।

मानव की भाषा में बोली-
"बाबा, मुझको जल में छोड़ो
बदले में जो चाहो, ले लो,
क्या इच्छा, तुम इतना बोलो ।"

बूढ़ा चकित हुआ घबराया
इतने सालों जाल बिछाया,
मछली मानव जैसा बोले
नहीं कभी भी वह सुन पाया ।
छोड़ दिया उसको पानी में
और कहा मीठी वाणी में-
"भला करे भगवान तुम्हारा
तुम नीले सागर में जाओ,
नहीं चाहिए मुझको कुछ भी,
तुम घर जाओ, चिर सुख पाओ ।"

बूढ़ा जब वापस घर आया,
बुढ़िया को सब हाल सुनाया-
"आज जाल में आई मछली
नहीं आम, सोने की असली,
हम जैसी भाषा में बोली-
'बाबा, मुझको जल में छोड़ो,
बदले में जो चाहो ले लो
क्या इच्छा तुम इतना बोलो ।'
माँगूँ कुछ, यह हुआ न साहस
यों ही छोड़ दिया जल मे, बस ।"

बुढ़िया बूढ़े पर झल्लाई
उसे करारी डाँट पिलाई-
" बिल्कुल बुद्धु तुम, उल्लू हो !
कुछ भी नहीं लिया मछली से
नया कठौता ही ले लेते
घिसा हमारा, नहीं देखते ।"

बूढ़ा झट सागर पर आया
कुछ बेचैन उसे अब पाया ।
मछली को जा वहाँ पुकारा
वह तो तभी चीर जल-धारा,
आई पास और यह बोली-
"बाबा, क्यों है मुझे बुलाया ?"

बूढ़े ने झट शीश झुकाया-
"सुनो बात तुम, जल की रानी
तुम्हें सुनाऊँ व्यथा कहानी,
मेरी बुढ़िया मुझे सताए
उसके कारण चैन न आए,
कहे : कठौता घिसा-पुराना
लाओ नया, तभी घर आना ।"

दिया उसे मछली ने उत्तर-
"दुखी न हो, बाबा, जाओ घर
पाओ नया कठौता घर पर।"

बूढ़ा वापस घर पर आया
नया कठौता सम्मुख पाया।

बुढ़िया और अधिक झल्लाई
और ज़ोर से डाँट पिलाई-
"बिल्कुल बुद्धू तुम, उल्लू हो,
माँगा भी तो यही कठौता
कुछ तो और ले लिया होता ।
उल्लू, फिर सागर पर जाओ,
औ' मछली को शीश नवाओ,
तुम अच्छा-सा घर बनवाओ।"

बूढ़ा फिर सागर पर आया
कुछ बेचैन उसे अब पाया,
स्वर्ण मीन को पुनः पुकारा
मछली तभी चीर जल-धारा,
आई पास और यह पूछा-
"बाबा क्यों है मुझे बुलाया ?"

बूढ़े ने झट शीश झुकाया-
"सुनो बात तुम, जल की रानी
तुम्हें सुनाऊँ व्यथा कहानी,
मेरी बुढ़िया मुझे सताए
उसके कारण चैन न आए,
कहती- जाकर शीश नवाओ
जल-रानी की मिन्नत करके
तुम अच्छा-सा घर बनवाओ ।"

"दुखी न हो, तुम वापस घर जाओ
और वहाँ निर्मित घर पाओ ।"

वह कुटिया को वापस आया
नहीं चिन्ह भी उसका पाया ।
वहाँ खड़ा था अब बढ़िया घर,
चिमनी जिसकी छत के ऊपर
लकड़ी के दरवाज़े सुन्दर ।

बुढ़िया खिड़की में बैठी थी
औ' बूढ़े को कोस रही थी-
"तुम बुद्धू हो, मूर्ख भयंकर
माँगा भी तो केवल यह घर,
जाओ, फिर से वापस जाओ
औ' मछली को शीश नवाओ,
नहीं गँवारू रहना चाहूँ,
ऊँचे कुल की बनना चाहूँ ।"
बूढ़ा फिर सागर पर आया
कुछ बेचैन उसे अब पाया,
मछली को फिर वहाँ पुकारा
वह तो तभी चीर जल-धारा,
आई पास, और यह पूछा-
"बाबा, क्यों है मुझे बुलाया?"

बूढ़े ने झट शीश झुकाया-
"सुनो बात तुम जल की रानी
तुम्हें सुनाऊँ व्यथा-कहानी,
मेरी बुढ़िया मुझे सताए
उसके कारण चैन न आए,
नहीं गँवारू रहना चाहे
ऊँचे कुल की बनना चाहे ।"
बोली मछली- जी न दुखाओ
उसको ऊँचे कुल की पाओ ।"

बूढ़ा वापस घर को आया
दृश्य देख वह तो चकराया,
भवन बड़ा-सा सम्मुख सुन्दर
बुढ़िया बाहर दरवाज़े पर,
खड़ी हुई, बढ़िया फ़र पहने
तिल्ले की टोपी औ' गहने,
हीरे-मोती चमचम चमकें
स्वर्ण मुँदरियाँ सुन्दर दमकें,
लाल रंग के बूट मनोहर
दाएँ-बाएँ नौकर-चाकर,
बुढ़िया उनको मारे, पीटे
बल पकड़कर उन्हें घसीटे।

बूढ़ा यों बुढ़िया से बोला-
"नमस्कार, देवी जी, अब तो
जो कुछ चाहा, वह सब पाया
चैन तुम्हारे मन को आया?"

बुढ़िया ने डाँटा, ठुकराया
उसे सईस बना घोड़ों का
तुरत तबेले में भिजवाया।

बीता हफ़्ता, बीत गए दो,
आग बबूला बुढ़िया ने हो
फिर से बूढ़े को बुलवाया,
उसको यह आदेश सुनाया-
" आ, मछली को शीश नवाओ
मेरी यह इच्छा बतलाओ,
बनना चाहूँ मैं अब रानी
ताकि कर सकूँ मनमानी ।"

बूढ़ा डरा और यह बोला-
"क्या दिमाग़ तेरा चल निकला ?
तुझे न तौर-तरीका आए
हँसी सभी में तू उड़वाए ।"

बुढ़िया अधिक क्रोध में आई
औ' बूढ़े को चपत लगाई-
"क्या बकते हो, ऐसी जुर्रत ?
मुझसे बहस करो, यह हिम्मत ?
तुरत चले जाओ सागर पर
वरना ले जाएँ घसीटकर ।"
बूढ़ा फिर सागर पर आया
और विकल अब उसको पाया,
स्वर्ण मीन को पुनः पुकारा
मछली तभी चीर जल धारा,
आई पास और यह पूछा-
"बाबा क्यों है मुझे बुलाया ?"
बूढ़े ने झट शीश झुकाया-
"सुनो व्यथा मेरी, जल-रानी
तुम्हें सुनाऊँ दर्द कहानी,
बुढ़िया फिर से शोर मचाए
नहीं इस तरह रहना चाहे,
इच्छुक है बनने को रानी
ताकि कर सके वह मनमानी ।"
स्वर्ण मीन तब उससे बोली
"दुखी न हो, बाबा, घर जाओ
तुम बुढ़िया को रानी पाओ !"

बूढ़ा फिर वापस घर आया
सम्मुख महल देख चकराया,
अब बुढ़िया के ठाठ बड़े थे,
उसके तेवर ख़ूब चढ़े थे,
थे कुलीन सुवा में हाज़िर
होते थे सामन्त निछावर,
मदिरा से प्याले भरते थे
वे प्रणाम झुक-झुक करते थे,
बुढ़िया केक, मिठाई खाए
और सुरा के जाम चढ़ाए,
कंधों पर रख बल्लम, फरसे
सब दिशि पहरेदार खड़े थे ।
बूढ़ा ठाठ देख घबराया
झट बुढ़िया को शीश नवाया,
बोला- "अब तो ख़ुश रानी जि,
जो कुछ चाहा वह सब पाया
अब तो चैन आपको आया ?"
उसकी ओर न तनिक निहारा
इसे भगाओ, किया इशारा,
झपटे लोग इशारा पाकर
गर्दन पकड़ निकाला बाहर,
सन्तरियों ने डाँट पिलाई
बस, गर्दन ही नहीं उड़ाई,
सब दरबारी हँसी उड़ाएँ
ऊँचे-ऊँचे यह चिल्लाएँ-
"भूल गए तुम कौन, कहाँ हो ?
आए तुम किसलिए, यहाँ हो ?
ऐसी ग़लती कभी न करना
बहुत बुरी बीतेगी वरना ।"
हुई न हिम्मत कुछ समझाए
वह बुढ़िया को अक़्ल सिखाए,
लौटा वह नीले सागर पर
सागर में तूफ़ान भयंकर,
लहरें गुस्से से बल खाएँ,
उछलें, कूदें, शोर मचाएँ,
स्वर्ण मीन को पुनः पुकारा
मछली चीर तभी जल-धारा,
आई पास और यह पूछा-
"बाबा क्यों है मुझे बुलाया ?"
बूढ़े ने झट शीश नवाया-
"सुनो व्यथा मेरी, जल-रानी
तुम्हें सुनाऊँ दर्द-कहानी,
उस बुढ़िया से कैसे निपटूँ ?
अक़्ल भला कैसे उसको दूँ ?
नहीं चाहती रहना रानी
बात नई अब मन में ठानी,
चाहे, हुक़्म चले पानी पर
सागर और महासागर पर,
जल में हो उसका सिंहासन
सभी सागरों पर हो शासन,
तुम ख़ुद उसका हुक़्म बजाओ
वह जो माँगे, लेकर आओ ।"

स्वर्ण मीन ने दिया न उत्तर
केवल अपनी पूँछ हिलाकर,
चली गई गहरे सागर में
और खो गई कहीं लहर में ।
बूढ़ा तट पर आस लगाए
रहा देर तक नज़र जमाए,
मीन न लौटी, वह घर आया
उसी कुटी को सम्मुख पाया,
चौखट पर बैठी थी बुढ़िया
और सामने वही कठौता
वही तसला था
जिसका टूटा हुआ तला था।


(साभार : कविताकोश )