बुधवार, 15 अप्रैल 2015

शर्त (कहानी)

बच्चों, आज मैं तुम्हें अपने बचपन की एक घटना को कहानी के रूप में बताना चाहूँगी. इस घटना से मुझे एक बड़ी सीख मिली थी। बिना किसी के कहे अपनी गलती मान लेने की और उसे फिर न दोहराने की सीख। कहानी शब्दशः वैसी ही नहीं है, जैसी घटना मेरे साथ घटी थी। लेकिन उसका सेंट्रल आइडिया वही है, जो मैंने उस समय महसूस किया था।

बात तब की है जब मैं कक्षा छः में पढ़ती थी। मेरे पिताजी मगरवारा नाम के एक छोटे से स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे और हमलोग वहाँ की रेलवे कॉलोनी में रहते थे। कॉलोनी के अंदर और उसके आस-पास खेलने की बहुत सारी जगह थी- हरे मैदान, कच्ची और पक्की खाली-खाली सड़कें, खेत, बाग, झाडियाँ, ईंट के भट्ठे, फैक्ट्रीज के खाली पड़े फॉर्म। हम बच्चे ट्रेन से स्कूल जाते थे। वापस आकर हम बहुत थक जाते लेकिन फिर भी खूब खेलते और ऊधम मचाते थे।

मैं कॉलोनी के छोटे बच्चों की लीडर थी। सारे बच्चे मेरी बात मानते थे क्योंकि मैं उनको रोज़ कहानी सुनाती थी। शाम को जब तक उजाला होता, हम खेलते और अँधेरा हो जाने पर सब बच्चे मुझे घेरकर कहानी सुनते। बच्चों को मेरी डरावनी कहानियाँ बहुत भाती थीं। लेकिन मैं बच्चों को डराने के लिए कहानी नहीं सुनाती। मैं उनसे कहती कि डरना कोई बुरी बात नहीं, लेकिन हम जिस चीज़ से डर रहे हैं, उसे समझने की कोशिश करनी चाहिए। एक दिन मैं ऐसी ही एक कहानी सुनाते हुए बोली "डरते तो सभी हैं, लेकिन डरकर हार नहीं माननी चाहिए।" तभी मेरा एक दोस्त श्याम बोला "तुम झूठ कहती हो। मैं नहीं डरता।" मैंने कहा "किसी न किसी चीज़ से तो डरते होगे।" पर वो नहीं माना।

बहुत देर तक हममें इस बात पर बहस होती रही। वो अपनी ज़िद पर अड़ा रहा कि वो डरता नहीं। मैं अपनी बात पर कायम कि दुनिया में कोई ऐसा नहीं है जिसे किसी न किसी बात से डर न लगता हो। बच्चे हमारी इस बहस के मज़े ले रहे थे। फिर उनमें से एक बच्चा बोला "गुड्डू दीदी, क्यों न शर्त लग जाए? आप श्याम भईया को डरा दो किसी बात पर।" इस पर श्याम ने मुझे चैलेन्ज किया कि ये मुझे डरा नहीं सकती। मैंने भी ताव में आकर शर्त लगा दी कि मैं तुम्हें डराकर रहूँगी एक न एक दिन।

इस बात को कई हफ्ते हो गए। शायद सब धीरे-धीरे इस शर्त के बारे में भूल गए थे, लेकिन मैं नहीं भूली थी। मुझे लग रहा था कि श्याम ने सबके सामने मुझे चुनौती दी है, और अगर मैंने उसे नहीं हराया तो बच्चों के सामने मेरी साख मिट्टी में मिल जायेगी। मैं बस मौका ढूँढ़ रही थी कि कब श्याम को डरा सकूँ।

रेलवे कॉलोनी के पीछे एक कब्रिस्तान था जिसमें ईसाइयों की कब्रें और हिंदुओं की समाधियाँ थीं। उन समाधियों पर नाम वगैरह भी खुदे थे, जिनसे हमें कुछ खास मतलब नहीं था। चारों ओर पेड़-पौधे और घास का हरा-भरा मैदान था। हमें उधर खेलने को मना किया जाता था। लेकिन हमारे लिए वो "ऊँच-नीच" का खेल खेलने की आदर्श जगह थी। हम घरवालों से बिना बताए सर्दियों के संडे वहाँ ज़रूर पहुँच जाते।

उस दिन भी हमलोग वहाँ पहले 'आइस्पाईस" खेले और उसके बाद ऊँच-नीच खेलने लगे। इस खेल में एक "चोर" होता था, जो दौड़-दौड़कर सबको पकड़ता और बाकी बच्चे किसी ऊँची जगह चढ़कर खुद को बचाते। बीच-बीच में जगह की अदला-बदली होती। जो भी एक जगह ज़्यादा देर तक रहता या फिर जिसको जगह बदलते समय चोर छू लेता वो चोर हो जाता।

मैं चोर थी और सबको पकड़ रही थी। सब इधर-उधर भाग रहे थे। श्याम थोड़ी दूर झाडियों में एक समाधि पर चढ़ गया था। सफ़ेद रंग से पुती हुयी वह समाधि उस जगह सबसे बड़ी और ऊँची थी। समाधि के ऊपर की ओर चार खम्बों पर एक छत भी पड़ी हुयी थी। ऊँचे होने के कारण उस पर चढ़ने-उतरने में थोड़ा समय लगता था।  हम सारे बच्चे कॉलोनी की ओर जाने वाली सड़क की ओर थे और श्याम अंदर उस समाधि की ओर। मुझे यही सबसे आइडियल समय लगा उसे डराने का।

मैंने चिल्लाकर कहा "श्याम, तुम्हारे पीछे कोई है।"
श्याम बोला "हट, झूठ बोल रही हो।"
"सच्ची, उसकी बड़ी-बड़ी मूँछें हैं और हाथ में तलवार। तुम्हें नहीं दिख रहा?" मैंने एकदम परेशान सा चेहरा बनाकर कहा।
अब श्याम थोड़ा डर गया। बाकी बच्चे पहले तो मेरी बात से थोड़ा चौंके। फिर सबने हमेशा की तरह मेरी हाँ में हाँ मिलाना शुरू किया।
"अरे हाँ, गुड्डू सच कह रही है। वो तुम्हारी ही ओर आ रहा है। भाग वहाँ से!"
मैंने भी कहा, "भाग श्याम!"

और सड़क की ओर दौड़ने लगी। सारे बच्चे पहले ही सड़क की ओर दौड़ लगा चुके थे। हमने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। श्याम 'रुको-रुको' चिल्लाकर हमारे पीछे दौड़ा। लेकिन हम सब भागकर पहले ही कॉलोनी में ओर आ चुके थे। बच्चों ने मुझसे पूछा "अब क्या करें?" तो मैंने उन्हें अपने-अपने घर भेज दिया।

दूसरे दिन हम स्कूल से जब वापस आये तो पता चला कि श्याम की तबियत खराब है। श्याम की मम्मी ने मेरी अम्मा से शिकायत की थी। मुझसे पूछताछ हुयी तो मैंने पूरी बात बता दी। मुझे बहुत डाँट पड़ी। एक तो हम बिना बताये उस जगह खेलने गए, दूसरे सबने मिलकर श्याम को डराया। श्याम उस घटना से इतना ज़्यादा डर गया था कि उसे बुखार हो गया था। हम सारे साथी श्याम को देखने गए। श्याम रुआँसा होकर बोला "डरा तो लिया था तुमने। फिर भाग क्यों आये थे तुमलोग मुझे छोड़कर?" मैं बहुत दुखी हुयी उसकी यह बात सुनकर।

मुझे नहीं पता था कि बात इतनी बढ़ जायेगी। पता होता तो शायद ऐसा न करती। हमारी ज़रा सी शैतानी ने श्याम को इतनी तकलीफ दी। मैंने उस दिन मन ही मन निश्चय किया कि कभी ऐसी उल्टी-सीधी शर्त नहीं लगाऊँगी। कभी भी अपने किसी साथी को बीच रास्ते में छोड़कर नहीं भागूँगी। हँसना-बोलना, हँसी-मज़ाक, एक-दूसरे को चिढ़ाना और बुद्धू बनाना- ये सब बातें एक लिमिट में अच्छी लगती हैं। और कुछ भी हो, खेल हो या और कोई समय, अपने किसी साथी को एकदम अकेले नहीं छोड़ना चाहिए।

8 टिप्‍पणियां:

  1. रिकार्ड की ...ठीक-ठाक हुई तो भेजती हूँ .... :-)अभी खुद सुनूँगी ...

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  2. अच्छा लगा पढ के😊 नन्दन व चम्पक के दिन याद आए !

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  3. कुछ भी हो, खेल हो या और कोई समय, अपने किसी साथी को एकदम अकेले नहीं छोड़ना चाहिए। बिलकुल सही...

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  6. सुन आये मास्टरनी जी के यहाँ.....बढ़िया लगा..

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